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छत्तीसगढ़ राज्य के प्रतीक

भारतीय संघ के 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आया .

छत्तीसगढ़ राज्य के राज्य चिह्न

4 सितम्बर, 2001 को मंत्रिमण्डल ने छत्तीसगढ़ राज्य शासन के अधिकृत प्रतीक चिह की निर्धारित और स्वीकृत कर तत्काल प्रभाव से लागू कर दिया. राज्य की विरासत, अपार सम्पदा और इसके उपयोग की अनंत सम्भावनाओं का प्रतीकात्मक स्वरूप है.

राज्य चिह्न की विशेषता

  • प्रतीक चिह्न की वृत्ताकार परिधि राज्य के विकास की निरन्तरता को दर्शाती है.
  • इसके बाहरी वृत्त में छत्तीसगढ़ के छत्तीस किल्ले वृत्त पर बाहर की ओर अंकित हैं. इन किलों का हरा रंग राज्य को समृद्धि, वन सम्पदा और नैसर्गिक सुन्दरता को प्रतिबिन्धित करता है.
  • इस बाहरी हरे वृत्त के भीतर स्वर्णिम आमा बिखेरती धान की बालियों दिखाई गई हैं, जो यहाँ की परम्परागत कृषि पद्धति के साथ पान आत्मनिर्भरता को बताती है.
  • प्रतीक चिह्न में ऊर्जा क्षेत्र में सक्षमता व सम्भावनाओं को विद्युत् संकेत के द्वारा दर्शाया गया है
  • तथा नीचे से ऊपर की ओर तीन लहराती रेखाएं राज्य के समृद्ध जल संसाधन का प्रतीक है
  • तिरंगे के तीन रंग छत्तीसगढ़ की राष्ट्र के प्रति एकजुटता तथा मध्य में राष्ट्रीय सारनाथ के चार सिंह और उसके नीचे सत्यमेव जयते’ राष्ट्र के प्रति सत्यनिष्ठा के प्रतीक है.

राज्य पशु एवं पक्षी

राज्य शासन ने जुलाई 2001 को राज्य पशु और पशु को चुना

छत्तीसगढ़ की राजकीय पक्षी

राजकीय पक्षी के रूप में दुर्लभ हो चुके बस्तरिया पहाड़ी मैना को माना गया है विलुप्त होने के खतरे की कगार पर पहुंच चुके ये दुर्लभ प्राणी एक समय यहाँ प्रकृति की गोद में निर्वाय चिचरण करते पर्याप्त मात्रा में देखे जाते थे.

छत्तीसगढ़ के राजकीय पक्षी की विशेषता या पहचान

  • दिखने में पंख काले ,चोच पिली और हलकी सी लाल
  • सुन्दर, कोमल और भावुक होते है
  • मनुष्य के समान बोलने और भाषा की सटीक नकल

छत्तीसगढ़ के राजकीय पक्षी के विलुप्त होने के कारण

इसके इस गुण ने मनुष्य को अत्यंत प्रभावित और आकर्षित किया और मनुष्य अपने मनोरंजन तथा अपने घरों के आगन की शान बढ़ाने के लिए इसे पालते है . पिछले दो तीन दशक में इनकी मांग इतनी अधिक बड़ी कि ये अपने प्राकृतिक आवास से बड़ी मात्रा में बाहर लाकर बेची जाने लगी, जहाँ इन्हें अपनी वंशवृद्धि का कोई अवसर होता. परिणामतः बस्तर के पहाड़ों में रहने वाली यह यही प्रजाति विलुप्ति की स्थिति में है और बस्तर के केवल कुछ क्षेत्रों में दिखती है.

छत्तीसगढ़ की राजकीय पशु

पूर्व में ये सम्पूर्ण प्रदेश में मिलते थे ये दरवारी संस्कृत के माने विद्यावती से दंडकारण्य अर्थात् वाचयगढ़ से बस्तर तक के क्षेत्र का विषद् वर्णन अपने ग्रंथ कादंबरी में किया है,

उसमें वन भैंसे के लिए ‘सदा सन्निहित मृत्युभीषण महिय का संदर्भात्लेख है. इसे यमराज के वाहन अर्थात् साक्षात् मृत्यु का प्रतीक बताते हुए बाणभट्ट ने उक्त क्षेत्र में इनके प्रचुरता में पाए जाने का उल्लेख किया है.

20वीं सदी के आरम्भ तक ये अमरकंटक से लेकर दंडकारण्य तक क्षेत्र में पाए जाते थे, जिसकी पुष्टि कैप्टन जे फोरस (1858 ई.) और जे.डब्ल्यू. बैस्ट (1925 ई.) के संस्मरण लेखों से होती है, फोरस ने विलासपुर के वनों में इनके अनेक झुंड देखे थे, किन्तु पिछले सदी के आरम्भिक दशकों में ये बिलासपुर और रायपुर के वनों से सिमट कर बस्तर तक सीमित हो गए.

इनकी संख्या और क्षेत्र में कमी के मुख्य कारण है

  • अनुकूल प्राकृतावास का कम होने जाना
  • शिकार एवं पालतू भैसों में पाई जाने वाली ‘रिडरपेस्ट’ जैसी संक्रामक बीमारियों का संक्रमण
  • साथ ही कभी कभी इनके द्वारा समीप के बाट पालतू मेसों से प्रजनन भी इनकी नस्ल में मिलावट का खतरा होता है.

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