डंडा नृत्य या सैला नृत्य: छत्तीसगढ़ का पारंपरिक नृत्य

डंडा नृत्य या सैला नृत्य: छत्तीसगढ़ का पारंपरिक नृत्य

डंडा नृत्य, जिसे पर्वतीय क्षेत्रों में ‘सैला नृत्य’ कहा जाता है, छत्तीसगढ़ का एक अत्यंत लोकप्रिय और कलात्मक पुरुष समूह नृत्य है। इस नृत्य का विशेष महत्व ताल और लय में होता है, जिसे नर्तक डंडों की टक्कर से उत्पन्न करते हैं। यह नृत्य छत्तीसगढ़ के मैदानी और पर्वतीय दोनों क्षेत्रों में बड़े उत्साह से किया जाता है।

वस्त्र विन्यास:

डंडा नृत्य करने वाले नर्तक परंपरागत वस्त्र धारण करते हैं। ये नर्तक घुटने से ऊपर तक धोती-कुर्ता और जेकेट पहनते हैं, साथ ही गोंदा की माला से सजी पगड़ी भी सिर पर बाँधते हैं। इसके अतिरिक्त, नर्तक मोर पंख से सज्जित होते हैं और उनके पाँव में घुंघरू होते हैं। उनकी आंखों में काजल, माथे पर तिलक और पान से रंगे हुए होंठ होते हैं, जो उनके व्यक्तित्व में एक विशेष आकर्षण जोड़ते हैं।

नृत्य पद्धति:

डंडा नृत्य में एक कुहकी देने वाला, मांदर बजाने वाला और झांझ-मंजीरा बजाने वाले शामिल होते हैं। बाकी नर्तक वृत्ताकार रूप में इनके चारों ओर नृत्य करते हैं। नृत्य के दौरान नर्तक एक-दूसरे के डंडों पर टक्कर मारते हैं, जिससे ताल उत्पन्न होती है। यह नृत्य वृत्तों, त्रिकोण, चतुर्भुज, और षटकोण की आकृतियों में किया जाता है, जो इसे और भी आकर्षक बनाता है।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व:

डंडा नृत्य के आरंभ में ठाकुर देव, मां सरस्वती, गणेश और राम-कृष्ण की वंदना की जाती है। यह नृत्य कार्तिक माह से शुरू होकर फाल्गुन माह तक चलता है, और इसका समापन पौष पूर्णिमा (छेरछेरा) के दिन होता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने इस नृत्य को ‘छत्तीसगढ़ का रास’ कहकर संबोधित किया है।

समापन:

डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है। इसकी अनूठी शैली और धार्मिक महत्व इसे विशेष बनाते हैं।

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