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क्या होता है मड़ई मेला जानिए बस्तर के मड़ई मेले के बारे में

बस्तर के मड़ई मेले को जानने से पहले जानते हैं मेला और मड़ई के बारे में . मेला और मड़ई दोनों का प्रयोजन धार्मिक होता है, किन्तु मेला स्थिर-स्थायी देव स्थलों में भरता है, जबकि मड़ई में निर्धारित देव स्थान पर आस-पास के देवताओं का प्रतीक- ‘डांग’ लाया जाता है अर्थात् मड़ई एक प्रकार का देव सम्मेलन भी है। मैदानी छत्तीसगढ़ में बइगा-निखाद और यादव समुदाय की भूमिका मड़ई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बइगा, मड़ई लाते और पूजते हैं, जबकि यादव नृत्य सहित बाजार परिक्रमा, जिसे बिहाव या परघाना कहा जाता है, करते है।

मेला और मड़ई में अंतर

मेला, आमतौर पर निश्चित तिथि-पर्व पर भरता है किन्तु मड़ई सामान्यतः सप्ताह के निर्धारित दिन पर भरती है। यह साल भर लगने वाले साप्ताहिक बाजार का एक दिवसीय सालाना रूप माना जा सकता है। ऐसा स्थान, जहां साप्ताहिक बाजार नहीं लगता, वहां ग्रामवासी आपसी राय कर मड़ई का दिन निर्धारित करते हैं। मोटे तौर पर मेला और मड़ई में यही फर्क है।

  • धमतरी अंचल को मेला और मड़ई का समन्वय क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में कंवर की मड़ई, रूद्रेश्वर महादेव का रूद्री मेला और देवपुर का माघ मेला भरता है।
  • एक अन्य प्रसिद्ध मेला चंवर का अंगारमोती देवी का मेला है। इस मेले का स्थल गंगरेल बांध के डूब में आने के बाद अब बांध के पास ही पहले की तरह दीवाली के बाद वाले शुक्रवार को भरता है।

बस्तर के मड़ई मेले 

बस्तर के मड़ई मेले : दशहरा मेला ,जगदलपुर, बस्तर

  • मड़ई का सिलसिला शुरू होने के पहले, दीपावली के पश्चात यादव समुदाय द्वारा मातर का आयोजन किया जाता है, जिसमें मवेशी इकट्ठा होने की जगह- ‘दइहान’ अथवा निर्धारित स्थल पर बाजार भरता है।
  • मेला-मड़ई के संदर्भ में सप्ताह के निर्धारित वार पर भरने वाले मवेशी बाजार भी उल्लेखनीय हैं।
  • मैदानी छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि में व्यापारी नायक-बंजारों के साथ तालाबों की परम्परा, मवेशी व्यापार और प्राचीन थलमार्ग की जानकारी मिलती है।
  • बस्तर के जिलों में मड़ई की परम्परा है, जो दिसम्बर-जनवरी माह से आरंभ होती है।
  •  केशकाल घाटी के ऊपर, जन्माष्टमी और पोला के बीच, भादों बदी के प्रथम शनिवार (सामान्यतः सितम्बर) को भरने वाली भंगाराम देवी की मड़ई को भादों जात्रा भी कहा जाता है।
  • भादों जात्रा के इस विशाल आयोजन में सिलिया, कोण्गूर, औवरी, हडेंगा, कोपरा, विश्रामपुरी, आलौर, कोंगेटा और पीपरा, नौ परगनों के मांझी क्षेत्रों के लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताओं को लेकर आते है।

बस्तर के मड़ई मेले: भंगाराम मेला ,केशकाल , बस्तर

  •  जनवरी माह में कांकेर (पहला रविवार), चारामा और चित्रकोट मेला तथा गोविंदपुर, हल्बा, हर्राडुला, पटेगांव, सेलेगांव (गुरुवार, कभी फरवरी के आरंभ में भी), अन्तागढ़, जैतलूर और भद्रकाली की मड़ई होती है।
  • फरवरी में देवरी, सरोना, नारायणपुर, देवड़ा, दुर्गकोंदल, कोड़ेकुर्से, हाटकर्रा (रविवार), संबलपुर (बुधवार), भानुप्रतापपुर (रविवार), आसुलखार (सोमवार), कोरर (सोमवार) की मड़ई होती है।
  • संख्या की दृष्टि से राज्य के विशाल मेलों में एक, जगदलपुर का दशहरा मेला है। बस्तर की मड़ई माघ-पूर्णिमा को होती है।

बनमाली कृष्णदाश जी के बारामासी गीत की पंक्तियां हैं-

”माघ महेना बसतर चो, मंडई दखुक धरा।

हुताय ले फिरुन ददा, गांव-गांव ने मंडई करा॥”

  • बस्तर के बाद घोटिया, मूली, जैतगिरी, गारेंगा और करपावंड की मड़ई भरती है।
  • यही दौर महाशिवरात्रि के अवसर पर महाराज प्रवीरचंद्र भंजदेव के अवतार की ख्यातियुक्त कंठी वाले बाबा बिहारीदास के चपका की मड़ई का है, जिसकी प्रतिष्ठा पुराने बड़े मेले की है तथा जो अपने घटते-बढ़ते आकार और लोकप्रियता के साथ आज भी अंचल का अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजन है।
  • मार्च में कोंडागांव (होली जलने के पूर्व मंगलवार), केशकाल, फरसगांव, विश्रामपुरी और मद्देड़ का सकलनारायण मेला होता है। दन्तेवाड़ा में दन्तेश्वरी का फागुन मेला नौ दिन चलता है।
  • अप्रैल में धनोरा, भनपुरी, तीरथगढ़, मावलीपदर, घोटपाल, चिटमटिन देवी रामाराम (सुकमा) मड़ई होती है। इस क्रम का समापन इलमिड़ी में पोचम्मा देवी के मई के आरंभ में भरने वाले मेले से होता है।

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