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छत्तीसगढ़ के मेले

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गीता का उद्धरण है- ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहं …’, अगहन को माहों में श्रेष्ठ कहा गया है

बड़े भजन रामनामी मेला  

  • मेलों की गिनती का आरंभ, अंचल की परम्परा के अनुरूप, प्रथम के पर्याय- ‘राम’ अर्थात्, रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को अनुष्ठान सहित चबूतरा और ध्वजारोहण की तैयारियां होती हैं
  • दशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है,
  • तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा होता है, इस हेतु दो बड़े गड्ढे खोदे जाते, जिन्हें अच्छी तरह गोबर से लीप-सुखा कर भंडारण योग्य बना लिया जाता। भक्तों द्वारा चढ़ाए और इकट्ठा किए गए चावल व दाल को पका कर अलग-अलग इन गड्ढों में भरा जाता, जिसमें मक्खियां नहीं लगतीं। यही प्रसाद रमरमिहा अनुयायियों एवं अन्य श्रद्धालुओं में वितरित होता।
  • संपूर्ण मेला क्षेत्र में जगह-जगह रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख ‘रामराम’ गोदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं।
पौष माह के विभिन्न मेले 
  •  पौष पूर्णिमा अर्थात् छेरछेरा पर्व पर तुरतुरिया, सगनी घाट (अहिवारा), चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है।
  • इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर), रामपुर, रनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है, यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलों के क्रम के आरंभ का होता है, जो चैत मास तक चलता है।
  • जांजगीर अंचल की प्रसिद्ध रउताही मड़ई हरदी बजार, खम्हरिया, बलौदा, बम्हनिन, पामगढ़, रहौद, खरखोद, ससहा है। क्रमशः भक्तिन (अकलतरा), बाराद्वार, कोटमी, धुरकोट, ठठारी की रउताही का समापन सक्ती के विशाल रउताही से माना जाता है।
  • बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है।

रामराम  मेला

  • सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है।
  • शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है।
  • कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है।
  • शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ ‘ख्याला’ मांगने की परम्परा है।
  • सरगुजा का ‘जतरा’ यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है।
  • कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।
  • भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है।
  • सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है।
  • मकर संक्रांति पर एक विशिष्ट परम्परा घुन्डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है।
  • यहां भक्त स्त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्प सहित इस पूरे अनुष्ठान को ‘सूखा लहरा’ लेना कहा जाता है।

क्वांर और चैत्र मास के विभिन्न मेले 

  • क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर  झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है।
  • अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है।
  • पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है।
  • रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।

माघ मास के विभिन्न मेले 

  • आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है।
  • रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है।
  • इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं।
  • दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है।
  • गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है।

दामाखेड़ा का मेला

  • शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट (जिसे मनकू, मटकू और मदकूदीप/द्वीप भी पुकारा जाता है), दरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में सौ-एक साल से भरने वाला इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है।
  •  दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता है, किन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सव, नगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती है।
  • इसी प्रकार चम्पारण में वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों से भी बड़ी तादाद में आते हैं। यह स्थान महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य स्थल माना जाता है, अवसर होता है उनकी जयंती, वैशाख बदी 11 का।

 तिहार-बार मेला 

  • आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले ‘बार’ में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का बारह दिन और बारह रात लगातार चलने वाले आयोजन का अपना विशिष्ट स्वरूप है।
  •  कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़कर, सरगुजा अंचल में ‘बायर’ नाम से आयोजित होता है। ‘बायर’ में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं।
  • कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ ‘हाय मोर दइया रे, राम जोहइया तो ला मया ह लागे’ टेक से होता है।
  • बायर के दौरान युवा जोड़े में शादी के लिए रजामंदी बन जाय तो माना जाता है कि देवता फुरमा (प्रसन्न) हैं, फसल अच्छी होगी।
  • रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्रा, जन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल रहता है। इस क्रम में गणेश चतुर्थी के अवसर पर आयोजित होने वाले दस दिवसीय चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होती।
  • सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है।
  • बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथ, अपने नए स्वरूप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है।
  • रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।
  • छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात् आरंभ हुआ सबसे नया बड़ा मेला राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष सप्ताह भर के लिए आयोजित होने वाला राज्योत्सव है।
  • भोरमदेव उत्सव, कवर्धा (अप्रैल), रामगढ़ उत्सव, सरगुजा (आषाढ़), लोककला महोत्सव, भाटापारा (मई-जून), सिरपुर उत्सव (फरवरी), खल्लारी उत्सव, महासमुंद (मार्च-अप्रैल), ताला महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी), मल्हार महोत्सव, बिलासपुर (मार्च-अप्रैल), बिलासा महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी-मार्च), रावत नाच महोत्सव, बिलासपुर (नवम्बर), जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी), शिवरीनारायण महोत्सव, जांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा), लोक-मड़ई, राजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरूप ले लिया है, इनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैं, जिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सव, राजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।

शिवरीनारायण का मेला 

  • शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है।

मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का ‘पट’ बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। भक्त नारियल लेकर ‘भुंइया नापते’ या ‘लोट मारते’ मंदिर तक पहुंचते हैं, यह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है

शिवरी नारायण मेला

  • उखरा और बताशा एक प्रकार से कथित क्रमशः ऊपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है।

ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुर, जो लीलागर नदी के दाहिने स्थित है, को ऊपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीत में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्यालय रायपुर आ जाने के बाद ऊपर राज का विशेषण, इस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लिया, जिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिणी तट, ऊपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राज, जाना जाता है, किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्गम क्षेत्र ऊपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।

खरौद का मेला

  • छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा है, जिसमें हाथ से ‘दरा, पछीना और निमारा’ गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है।
  • इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता है कि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए ‘परिचय सम्मेलन’ जैसा होने के कारण भी है।
रतनपुर मेला 
  • ‘लाखा चांउर’ की प्रथा हसदेव नदी के किनारे कलेश्वरनाथ महादेव मंदिर, पीथमपुर में भी है, जहां होली-धूल पंचमी पर मेला भरता है। इस मेले की विशिष्टता नागा साधुओं द्वारा निकाली जाने वाली शिवजी की बारात है। मान्यता है कि यहां महादेवजी के दर्शन से पेट के रोग दूर होते है। इस संबंध में पेट के रोग से पीड़ित एक तैलिक द्वारा स्वप्नादेश के आधार पर शिवलिंग स्थापना की कथा प्रचलित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण खरियार के जमींदार द्वारा कराया गया है, जबकि मंदिर का पुजारी परंपरा से ‘साहू’ जाति का होता है।
  • कोरबा अंचल के प्राचीन स्थल ग्राम कनकी के जांता महादेव मंदिर का पुजारी परंपरा से ‘यादव’ जाति का होता है। इस स्थान पर भी शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है।
  • चांतर राज में माघ पूर्णिमा पर भरने वाले अन्य बड़े मेलों में सेतगंगा, रतनपुर, बेलपान, लोदाम, बानबरद, झिरना, डोंगरिया (पांडातराई), खड़सरा, सहसपुर, चकनार-नरबदा (गंड़ई), बंगोली और सिरपुर प्रमुख है।
  • इसी प्रकार शिवरात्रि पर भरने वाले प्रमुख मेलों में सेमरसल, अखरार, कोटसागर, लोरमी, नगपुरा (बेलतरा), मल्हार, पाली, परसाही (अकलतरा), देवरघट, तुर्री, दशरंगपुर, सोमनाथ, देव बलौदा और किलकिला पहाड़ (जशपुर) मेला हैं।
मेलास्थान/जिला
रामनवमी का मेला (चैत्र नवमी)डभरा का मेला (जांजगीर-चाम्पा)
डोंगरगढ़ का मेला (कुँवार व चैत्र) (राजनान्दगाँव)
भोरमदेव का मेला (कबीरधाम)
खल्लारी का मेला (महासमुन्द )
रतनपुर का मेला (बिलासपुर)
चन्द्रपुर का मेला (जांजगीर-चाम्पा)
महाशिवरात्रिकापू का मेला (सरगुजा सम्भाग )
सेमरताल का मेला
नर्मदा का मेला (राजनान्दगाँव)
किलकिला का मेला (जशपुर)
कार्तिक पूर्णिमा का मेलामहादेव घाट (खारून नदी के तट पर रायपुर)
मोहरा (राजनान्दगाँव)
माघ पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर महाशिवरात्रि तकशिवरीनारायण का मेला
दामखेड़ा एवं कुदुरमाल मेला (माघ पूर्णिमा-कबीरपन्थी)
राजिम का पुन्नी मेला
सिरपुर का मेला (सिरपुर, महासमुन्द )
मल्हार का मेला
रतनपुर का मेला (रतनपुर, बिलासपुर)
बसन्त पंचमी / माघ पंचमीकुटीघाट का मेला (जांजगीर-चाम्पा )
नाग पंचमीदलहा पहाड़ का मेला (जांजगीर-चाम्पा) इसमें पहाड़ पर चढ़ने की परम्परा है।
पौष पूर्णिमा का मेलातुरतुरिया मेला (बलौदाबाजार)
चम्पारण का मेला (वल्लभाचार्य जी की जयन्ती पर,रायपुर)
मकर संक्रांतिलखनघाट ( हसदेव नदी-चाम्पा )
शिवरीनारायण का मेला
खिचड़ी एवं तिल के लड्डू बनाते हैं।
कृष्ण जन्माष्टमी पर्व मेलारायगढ़ (भाद्रपक्ष अष्टमी)
मड़ई मेलानारायणपुर
फाल्गुन मड़ई-फरसगाँव (कोण्डागाँव)
लोक मड़ई-राजनान्दगाँव पौष माह (एकादशी )
बड़े भजन का रामनवमी मेला
फाल्गुनगिरौदपुरी का मेला (बलौदाबाजार)

मदकू द्वीप मेला
मुंगेली (ईसाई समुदाय)

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